सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सरकार से पूछा कि जब वनों को सुप्रीम कोर्ट ने परिभाषित किया है तो राज्य सरकार को इसे दोबारा परिभाषित करने की जरूरत क्यों पड़ी। अदालत ने कहा कि प्रदेश को वन विरासत में मिले हैं। मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी एवं न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की खंडपीठ के समक्ष मामले की सुनवाई हुई।
मामले के अनुसार नैनीताल निवासी प्रोफेसर अजय रावत व अन्य ने हाईकोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर कर कहा था कि 21 नवंबर 2019 को उत्तराखंड के वन एवं पर्यावरण अनुभाग ने एक आदेश जारी कर कहा कि उत्तराखंड में जहां दस हेक्टेयर से कम या 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले वन क्षेत्र है उन्हें वनों की श्रेणी से बाहर रख गया है या उनको वन नहीं माना। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि यह आदेश एक ऑफिशियल आदेश है। इसे लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो यह शासनादेश है और न ही यह कैबिनेट से पारित आदेश। सरकार ने इसे अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए घुमा-फिराकर यह शासनादेश जारी किया है।
याचिकाकर्ताओं का यह भी कहना था कि फॉरेस्ट कंजरवेशन एक्ट 1980 के अनुसार प्रदेश में 71 प्रतिशत वन क्षेत्र घोषित है जिसमें वनों की श्रेणी को भी विभाजित किया हुआ है लेकिन इसके अलावा कुछ क्षेत्र ऐसे भी है जिनको किसी भी श्रेणी में नहीं रखा गया।
याचिकाकर्ताओं का यह भी कहना था कि इन क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र की श्रेणी में शामिल किया जाए ताकि इनके दोहन या कटान पर रोक लग सके। सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के अपने आदेश गोडा वर्मन बनाम केंद्र सरकार में कहा है कि कोई भी वन क्षेत्र चाहे उसका मालिक कोई भी हो उनको वनों की श्रेणी में रखा जाएगा और वनों का अर्थ क्षेत्रफल या घनत्व से नही है। विश्वभर में भी जहां 0.5 प्रतिशत क्षेत्र में पेड़ पौधे है या उनका घनत्व 10 प्रतिशत है तो उनको भी वनों की श्रेणी में रखा जाएगा। सरकार के इस आदेश पर वन एवं पर्यारण मंत्रालय ने कहा था कि प्रदेश सरकार वनों की परिभाषा न बदले। उत्तराखंड में 71 प्रतिशत वन होने कारण कई नदियों व सभ्यताओं के अस्तित्व बना हुआ है।